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बचपन में इस ट्रिंग-ट्रिंग की कहाँ समझ थी
बचपन में इस दूरी की कहाँ ज़्यादा बूझ थी

बस!जो पास उससे खुश हो जाते थे
बस!जितना मिला उसे ही पर्याप्त मानते थे

अब समझ आया बड़े लोग
तब बचपन क्यूँ माँगते थे
जब हम बच्चे हुआ करते थे
क्यूँकि उस ज़माने को
हम भी कई दिनों से तरस रहे थे

कैसे-कैसे और जाने कहाँ गए वो दिन
उन्हें देखने को एल्बम तलाश रहे थे

और कहीं ये वक़्त गुज़र न जाए
तो उन्हें खूबसूरत यादों में कैद कर रहे थे

लेकिन कमी रही तो वहाँ
दिल में झाँकना भूले जहाँ
क्यूँकि हमारे इर्द-गिर्द
कितने ही बच्चे घूम रहे थे
लेकिन उसमें ख़ुद को नहीं देख पाए थे
शायद!इसीलिए वक़्त से पहले ही
बहुत ज़्यादा बड़े हो गए थे

और आजकल तो अपनों से
फ़ोन पर ही मुलाकात होती है

पता ही नहीं चला बड़े से बड़े
और छोटे से छोटे की ज़िंदगी
एक चलभाष पर कैसे-कब-कहाँ और क्यूँ
पूर्णतः निर्भर हो जाया करती है
भले ही बहुत कुछ पाया है
कितना कुछ खोया है

लेकिन साथ ही साथ
फ़ोन की सुविधा से
बहुत कुछ आसान हो गया है
और जीवन का सफ़र भी
काफ़ी मनोरंजक हो गया है।